खेल महाकुम्भ नजदीक क्या , कल ही से शुरू होने वाला है। हम भारतीय कितने प्रतिनिधि खिलाड़ियों के साथ किन किन खेलों में शामिल हो रहे हैं और कितने पदकों की दौड़ में शामिल हैं यह बात ब-मुश्किल कुछेक लोग जानते होंगे।
हम निश्चित तौर पर उन्ही खिलाड़ियों से आस लगाए बैठे होंगे जिन्होंने गई मर्तबा अपना जोरदार प्रदर्शन किया है , पदक भले ला पाने में असमर्थ रहे तो क्या? किंतु हम कोई नई प्रतिभा अवश्य ही नही ढूंढ पाये , यह भी तय ही है। हमारी हॉकी की टीम इस बार नही खेलेगी इसकी चिंता बीच में की गई और राजनितिक बखेडा खड़ा कर शान्ति बहाल है।
स्थानीय स्तर पर खेलने वाले खिलाडी गुपचुप तरीके आजमा कर राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर जाने कैसे भी नौकरियां हासिल कर स्वार्थ सिद्ध कर चुके होंगे यह भी हमारे लिए गौण बातें हैं। देश के इतिहास को जाने तो ओलिम्पिक के ८८ वर्षीय समय में मात्र १५ पदक हमारे खाते में दर्ज हुए हैं , जो हमारा अब तक का रिकॉर्ड है।
खेलना ज्यादा जरुरी है या खेल नियम या दोनों ? खेल बजटप्रतियोगिता की नियमितता ?, प्रशिक्षकों की वयवस्था? इत्यादि प्रश्नों पर हमारी खामोशी भी बड़ी अचम्भे से भरी हुई है।
दोष निकालने वालों की संख्या अधिक है बजाय उपायों को दर्शाने के ।
मूलतः कुछ करने दिए जाने के निरंतर प्रयासों की उपेक्षा ही देश में देश-भक्ति और अन्तर-राष्ट्रीय विचारधारा में क्षीणता के कारक हैं। एक अड़चन हमारे विकृत विचार भी , जिसकी वजह से अपने सुख को पाना तो चाहते है परन्तु किसी को आगे बढ़ते देखना कतई बर्दाश्त नहीं कर सकते।
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